बीजेपी
और आरएसएस का रिश्ता क्या है...
ये
किसी से छिपा नहीं है...बीजेपी
के लिए कैडर से लेकर नेता तक
देने वाला संघ ऐसा स्कूल है
जहां विचारधारा और अनुशासन
की शिक्षा पाकर निकलने वाले
नेताओं ने अपनी अलग छाप छोड़ी
है...
मगर
इसके साथ एक सच ये भी है कि संघ
में रहते हुए एक
स्वंयसेवक
के तौर पर विचारधारा और सत्ता
में आने के बाद नेता के तौर पर
उसी
व्यक्ति की
विचारधारा में अक्सर फर्क
देखा गया है...आज
से ही
नहीं
जनसंघ
के जमाने से..
अटल-आडवाणी
के जमाने से ऐसा होता आया है...
केन्द्र
में मोदी सरकार आने के बाद इसे
स्वंयसेवकों की सरकार कहा
गया था...
मगर
अब एक बार फिर स्थितियां
बदलती दिख रही हैं...
दो
साल तक संघ के एजेंडे को balance
करने
में जुटी मोदी सरकार ने अब
शायद सीधे तौर पर एजेंडा बदल
दिया है...जिसका
नतीजा है कि संघ और सरकार के
बीच अब खुलेआम तलवारें खिंचती
नजर आ रही है...हाल
में दो ऐसे उदाहरण सामने आए
हैं...जो
सवाल उठा रहे हैं कि क्या अटल
की राह पर मोदी भी चल पड़े हैं..
उज्जैन
में लगे आस्था के महाकुंभ
सिंहस्थ में अमित शाह दलित
संतों के साथ शाही स्नान करने
वाले हैं..चुनावी
सियासत में दलितों का वोट
बटोरने की चाहत में शुरु हुए
बीजेपी के अभियान का ये अगला
चरण है...जिसके
जरिए अमित शाह कई निशाने एक
साथ साधना चाहते हैं...मगर
अमित शाह की इस कोशिश ने संतों
के साथ साथ संघ को भी नाराज कर
दिया है...अब
संघ के नेता खुलकर इसकी मुखालफत
कर रहे हैं..
इसके
अलावा गोवा
में भी संघ और बीजेपी के बीच
स्कूलों में शिक्षा की भाषा
को लेकर टकराव चरम पर है...गोवा
के सीएम लक्ष्मीकांत पारसेकर
ने तो खुलकर बीजेपी अध्यक्ष
अमित शाह से शिकायत की और गोवा
के संघ प्रमुख को हटाने की
मांग तक
कर
डाली … इससे
जाहिर
है संघ और बीजेपी के बीच
रिश्तों की गर्माहट अब
ठंडी
होने लगी है...
दरअसल
देश में मौजूद सत्तातन्त्र
की एक पहचान समर्पित स्वंयसेवक
की भी रही है...फिर
चाहे बीजेपी अध्यक्ष अमित
शाह हों या फिर खुद प्रधानमंत्री
मोदी...
नई
बीजेपी के इन शिखरपुरुषों का
निर्माण संघ की उसी विचारधारा
की फैक्ट्री में हुआ है जिससे
कभी अटल बिहारी वाजपेयी और
आडवाणी निकले थे...अटल
और आडवाणी के दौर के
अनुभवों से संघ ने सीखा और
मोदी को लॉन्च
किया मगर अब मोदी भी शायद छवि
के चक्कर में उसी राह पर निकल
पड़े हैं जो संघ को कभी पसंद
नहीं...शुरुआत
में दो साल संघ के एजेंडे को
बैलेंस किया गया मगर अब मोदी
की पाकिस्तान को लेकर नीति,
पीडीपी
के साथ कश्मीर में सरकार बनाना,
आरक्षण
के मुद्दे पर नीति हो या फिर
लेबर लॉ,
खुदरा
क्षेत्र में एफडीआई जैसे
नीतिगत मुद्दे...हर
मुद्दे पर मोदी सरकार ने संघ
की स्थापित विचारधारा के खिलाफ
जाने का काम किया है...
अब
सवाल उठ रहे हैं कि क्या अब एक
बार फिर संघ वापस उसी mode
में
जा रहा है जहां से
उसे नए विकल्प
की जरूरत महसूस होती है...दरअसल
संघ से निकले ऐसे
नेताओं
की एक लम्बी फेहरिस्त है,
जिन्होंने
बीजेपी के जरिए राजनीति में
शिखर तक का सफर तय किया
है...मगर
संघ की विचारधारा से निकले
लोग सत्ता में आने के साथ ही
बदलते गए...
इस
प्रवृत्ति के सबसे बड़े उदाहरण
हैं अटल बिहारी वाजपेयी जिन्होने
सत्ता में आने के साथ ही संघ
के उसूलों को किनारे रख दिया...
अटल
जी की पाकिस्तान को लेकर नीति
उनके विदेशमंत्री बनने से
लेकर प्रधानमंत्री बनने तक
बेहद उदार रही...
विदेश
मंत्री के तौर पर अगर अटलजी
ने भारत-पाक
वीजा मामले में छूट दिलाई तो
पीएम बनने के बाद लाहौर यात्रा
और आगरा शिखर वार्ता के जरिए
अपनी व्यक्तिगत विचारधारा
को आगे बढ़ाया...
जो
संघ की
नीतियों के बिल्कुल खिलाफ
था...
अटल
जी के अस्वस्थ होने के बाद
बीजेपी की सियासत के सेन्टर
में आए आडवाणी...
जिन्होंने
अपनी कट्टर हिन्दूवादी छवि
को किनारे रखकर जिन्ना की
तारीफ की....नतीजा
वक्त के साथ हाशिए पर चले
गए...असल
में संघ ने हमेशा ही बीजेपी
के लिए शिखर पुरुषों का निर्माण
किया है..अयोध्या
आंदोलन ने अगर आडवाणी के
व्यक्तित्व को तराशा तो गोधरा
कांड के बाद संघ ने मोदी को
नायक की तरह पेश किया...
मगर
अटल-आडवाणी
के अनुभव के बाद अब नरेन्द्र
मोदी को लेकर भी
संघ
का अनुभव बेहतर नहीं दिख रहा
है...
सत्ता
में आने के बाद मोदी को अपनी
ग्लोबल इमेज की चिन्ता सताने
लगी है जिसके बाद संघ भी अपने
वीटो का इस्तेमाल कई जगह करता
दिख रहा है जिससे असल में बीजेपी
की मुश्किलें ही बढ़ रही हैं...
फिर
चाहे सुब्रह्मणयम स्वामी को
राज्यसभा भेजने का मामला
हो...या
फिर आरक्षण के मुद्दे पर मोहन
भागवत का दिया गया पुराना
बयान...संघ
से सहयोगी संगठनों का खुलेआम
विरोध हो या फिर छोटे छोटे
मसलों पर विवाद की स्थितियां
पैदा होना...
सवाल
उठ रहे हैं कि क्या अब बीजेपी
और संघ का रिश्ता वापस उसी
मोड़ पर पहुंच चुका है..जहां
से अटल-आडवाणी
युग खत्म हुआ था...क्या
मोदी सरकार के अगले बचे तीन
साल इसी आज़माइश
में गुजरने वाले हैं...क्या
संघ को ये तीन साल नए शिखरपुरुष
के निर्माण की जरूरत का अहसास
दिलाने वाले हैं
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