देश
में निजाम बदलते ही माहौल बदला
सा लग रहा है ...
लंबे
समय बाद सत्ता बदली है ..
लोगों
ने बड़ी उम्मीदों के साथ इस
बार वोट किया है ...लगभग
1 अरब
21 करोड़
लोगों की उम्मीदों का बोझ कम
नहीं होता लिहाजा नई सरकार
प्रचंड बहुमत से मिले जोश के
साथ इन उम्मीदों को पूरा करने
की कोशिश में है ...
ताबड़तोड़
फैसले लिए जा रहे हैं ...
प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी विश्व पटल पर
भारत को उच्चतम स्थान दिलाने
के वादे के साथ आए हैं तो कोशिश
ये हो रही है कि ना सिर्फ
पड़ोसियों बल्कि विश्व के
तमाम देशों के बीच भारत को
लीडर स्थापित किया जा सके ...
शपथ
ग्रहण में सार्क देश के
राष्ट्राध्यक्षों को न्यौता ... नवाज़
शरीफ के साथ लेटर डिप्लोमैसी,
भूटान
का दौरा और अब ब्रिक्स समिट
से ठीक पहले ब्राजील में चीन
के राष्ट्रपति जिनपिंग से
मुलाकात,
मोदी
के पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते
मधुर बनाने की कोशिशों का
नतीजा नजर आती हैं ।
हालांकि
इसके साथ ही बेहद जरूरी है कि
इतिहास में हुई इन कोशिशों
का हश्र भी देखा जाए ...
पड़ोसी
मुल्कों से बेहतर रिश्तों की
चाहत में ही देश के पहले
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु
ने पंचशील सिद्धांत दिया था
.... चीन
से रिश्ते बेहतर करने की कोशिश
की ... हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा दिया
लेकिन 1962
में
चीन ने जो दगाबाजी की वो हमेशा
के लिए मिसाल है..
पाकिस्तान
की दोहरी नीति तो जगजाहिर है
.. एक
तरफ वो दोस्ती का हाथ बढ़ाता
है तो दूसरी तरफ उनकी सरहद से
भारत को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहंचाने की कोशिश जारी रहती है .. पाकिस्तान के साथ दोस्ताना रिश्ते की एक नहीं कई कोशिशें हुई हैं ... एनडीए की सरकार में 1999 में लाहौर बस सेवा शुरु हुई ... पहले ही दिन वाजपेयी उस बस में सवार होकर पाकिस्तान गए और उसी साल लाहौर समझौता भी हुआ .... भारत-पाक के बीच रिश्तों की इस नई शुरुआत पर पूरी दुनिया की नज़र थी लेकिन इसके तुरंत बाद भारत की तरफ से बढ़े दोस्ती के हाथ के बदले में पाकिस्तान ने कारगिल युद्ध का तोहफा दिया था ... जिसका दंश देश आज तक झेल रहा है ...
भारत को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहंचाने की कोशिश जारी रहती है .. पाकिस्तान के साथ दोस्ताना रिश्ते की एक नहीं कई कोशिशें हुई हैं ... एनडीए की सरकार में 1999 में लाहौर बस सेवा शुरु हुई ... पहले ही दिन वाजपेयी उस बस में सवार होकर पाकिस्तान गए और उसी साल लाहौर समझौता भी हुआ .... भारत-पाक के बीच रिश्तों की इस नई शुरुआत पर पूरी दुनिया की नज़र थी लेकिन इसके तुरंत बाद भारत की तरफ से बढ़े दोस्ती के हाथ के बदले में पाकिस्तान ने कारगिल युद्ध का तोहफा दिया था ... जिसका दंश देश आज तक झेल रहा है ...
वहीं
एक नज़ीर इंदिरा गांधी के
कार्यकाल की भी है ....
इंदिरा
गांधी जब प्रधानमंत्री बनी
तब तक देश चीन और पाकिस्तान
के साथ युद्ध की विभीषिका झेल
चुका था ...और
शायद यही वजह थी कि इंदिरा
गांधी ने कभी पड़ोसी मुल्कों
से रिश्तों की soft
padelling करने
के बारे में नहीं सोचा ...
समस्याएं
आईं तो उसका अपनी तरह से समाधान
किया ...
पाकिस्तान
से लेकर अमेरिका तक ने भारत
को आंखें दिखाने की कोशिश की
लेकिन हुआ वही जो भारत चाहता
था
अब
देश के हुक्मरानों को तय करना
है कि आखिर वो क्या चाहते हैं
...
उनके
सामने दो रास्ते हैं ....
या
तो उस मजबूती के साथ खड़े हों
कि पड़ोसी मुल्क आंखें दिखाने
के बारे में सोच भी ना सके या
फिर soft
padeling की
जाए और पड़ोसी अपने नापाक
मंसूबों में कामयाब होते रहें
...
कूटनीतिक
रिश्तों में कई बार चीजें
Photo
Opportunity के
लिए की जाती हैं ..
और
तब तक के लिए ही ये ठीक है ..
ज्यादा
ज़रूरी ये है कि ग्राउंड रिएलिटी
देखी जाए ...
पाकिस्तान
में अब भी अटल बिहारी वाजपेयी
की लोकप्रियता कम नहीं हुई
है लेकिन इसके साथ ही कारगिल
युद्ध को आज भी कोई नहीं भुला
पाया है ..
देश
की संप्रभुता,
एकता,
अखंडता
से जुड़े मसले बेहद गंभीर होते
हैं ऐसे में इन पर महज अखबार
और टीवी चैनल का हेडलाइन बनने
के लिए विचार करने से ऊपर उठकर
सोचने की जरूरत है ...
और
सत्ता में बैठी बीजेपी को
सोचना चाहिए कि जो चीज विपक्ष
में रहते हुए
वर्जित थी वो सत्ता में रहते
हुए भी वर्जित होनी चाहिए..