क्या
अमेठी में रायबरेली का इतिहास
दोहराया जाएगा,
ये
सवाल इसलिए क्योंकि अमेठी
में ऐसे हालात देखने को मिल
रहे हैं जैसे कि गांधी परिवार
अपनी सीट बचाने की लड़ाई लड़
रहा हो ।1977
के
इमरजेंसी के बाद जब पूरे देश
में कांग्रेस और इंदिरा विरोधी
लहर थी उस वक्त इंदिरा गांधी
रायबरेली से हारीं थीं ।
चार दशक बाद एक बार फिर कुछ
कुछ वैसा ही माहौल बनता दिख
रहा है,
जब
गांधी का दुर्ग अभेद्य रहेगा
या नहीं इसे लेकर सवाल खड़े
होने लगे हैं ।
1977
के
आम चुनाव से पहले भी देश
में कांग्रेस विरोधी माहौल
था ...
परिवार
नियोजन को लेकर संजय गांधी
के तौर तरीकों और उनके तानाशाही
रवैयों ने इस माहौल को जन्म
दिया था लोगों में संजय गांधी
के Extra
constitutional authority की
भूमिका को लेकर भी नाराजगी
थी ..
बाद
में अपनी कुर्सी बचाए रखने
के मकसद से इंदिरा गांधी ने
देश में आपातकाल लागू कर दिया
था ...
और
ये आपातकाल लगाना 1977
के
चुनावों में कांग्रेस के लिए
घातक साबित हुआ ...
नतीजा
ये हुआ था कि तत्कालीन
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी
को राजनारायण ने उनके ही
गढ़ रायबरेली में मात दे
दी थी
हालांकि
लोकतन्त्र में गढ़
की भाषा नैतिक और किताबी
तौर पर नहीं होती....
लेकिन
व्यवहारिक तौर पर ऐसा
देखने को मिल जाता है ...
अमेठी
और रायबरेली ,
ये
दो लोकसभा सीटें
गांधी परिवार का गढ़

दरअसल
एक बार फिर माहौल कुछ हद तक
वैसा ही दिखता है...10
साल
बाद सोनिया गांधी का अमेठी
में जनसभा करने के लिए मजबूर
होना ये बताता है कि आशंकाओं
ने दस जनपथ की अमूमन खामोश
रहने वाली दीवारों के दरम्यान
हलचल तेज कर दी है...प्रियंका
गांधी की अतिसक्रियता और
भावुकता भरे भाषण ये बताते
हैं कि दस साल के यूपीए शासन
के खिलाफ बने माहौल से उबरने
और खुद को अलग दिखाने के लिए
सिवाय पीढ़ियों की दलीलें
देने के अलावा इनके
पास कुछ नहीं बचा है...वो
भी तब जब सूबे की सत्ताधारी
पार्टी एसपी ने इन दोनों सीटों
पर कांग्रेस को वॉकओवर दे रखा
है...
फिर
भी इन दोनों सीटों पर सोनिया
गांधी और राहुल गांधी को दो
गैर राजनीतिक भाजपाई उम्मीदवारों
के सामने लोहे के चने चबाने
पड़ रहे हैं ।
बीजेपी
ने अमेठी में स्मृति ईरानी
को मैदान में उतारा है...जो
नरेन्द्र मोदी की करीबी
हैं...लेकिन
राहुल गांधी के मुकाबले कद
के तौर पर बड़ा नाम नहीं
हैं...ईरानी
एक बार दिल्ली के चांदनी चौक
से कपिल सिब्बल के खिलाफ चुनाव
हार चुकी हैं...लेकिन
बदले माहौल में अमेठी में
स्मृति ईरानी की कैम्पेनिंग
ने गांधी परिवार को चढ़ते पारे
के बीच पसीना बहाने को मजबूर
कर दिया है...कुछ
यही हाल रायबरेली का भी है...जहां
बीजेपी से अजय अग्रवाल उम्मीदवार
हैं...सुप्रीम
कोर्ट के वकील अग्रवाल की
पहचान बोफोर्स,
सीडब्ल्यूजी,
तेलगी
और ताज कॉरीडोर जैसे मामलों
में याचिकाकर्ता की है...यानी
सोनिया गांधी की शख्सियत के
सामने अजय अग्रवाल का
राजनीतिक कद काफी
छोटा नज़र आता है....
देश
के अलग-अलग
हिस्सों में आपदा की घड़ी आने
पर भले ही गांधी परिवार वहां
ना जाता हो लेकिन अमेठी और
रायबरेली में ये छोटी से छोटी
घटना पर ये वहां जाते
रहे हैं ...
इसके
बावजूद इस बार जितनी मशक्कत
इन्हें अपनी इन दो सीटों को
बचाने के लिए करनी पड़ी हो
इससे पहले शायद हीं इन्हें
कभी इतनी चुनौती मिली
हो ..
दरअसल
इस चुनाव में बहुत कुछ नया
हो रहा है...जिसके
चलते लम्बे वक्त बाद कैम्पैनिंग
का दायरा अघोषित राजनीतिक
भाईचारे से ऊपर उठ चुका है...ऐसे
में गढ़ किसी का हो...रास्ते
किसी के आसान नहीं हैं
..ऊपर
से कांग्रेस दस सालों के
कुशासन,
महंगाई,
भ्रष्टाचार,
और
पॉलिसी पैरालिसिस के आरोपों
में घिरी है...जिसके
शीर्ष नेता खुद को चाहकर भी
इनसे अलग नहीं कर सकते तो कीमत
चुकाने से भला कैसे बच पाएंगे...
अमेठी
और रायबरेली की लड़ाई भी इसीलिए
मुश्किल हुई है...और
ये सवाल भी इसीलिए
उठे हैं कि क्या गांधी
परिवार का किला अभेद्य रह
पाएगा ?
सबसे पहले तो सर बधाई आपने बेहद कसावट के साथ गाँधी दुर्ग के दरकने क़ी हलचल को अपने लेख के ज़रिये महसूस कराया है. लेकिन सर मुझे लगता है कि अभी आपातकाल जैसे हालात नहीं बने हैं अमेठी राहुल से नाराज़ हो सकती है निराश नहीं है. आपने खुद कहा स्मृति पिछली बार हारी तो उनके लिये चॉंदनी चौक बेनूर और अधेर चौक बन गया और वे कभी लौट कर करीम के यहाँ बिरयानी खाने नहीं गयीं। जंग मुश्किल है होनी भी चाहिए इन देवदूतों को धऱती का हाल मालूम भि चले
जवाब देंहटाएंसर आपने बहुत सटीक विश्लेषण किया है़...इन नेताओं को कब यह बात समझ में आएगी कि अगर 5 साल में कुछ काम कर लिए होते तो आज यह नौबत नहीं आती...
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