इन दिनों संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थानों पर जो सवाल खड़े हो रहे हैं वो आने वाले दिनों के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं ... बीते एक-दो साल में भारत की राजनीतिक, सामाजिक सोच और स्थिति में काफी बदलाव आ गया है .. जो स्थितियां बन और बिगड़ रही हैं वो ये दिखाती हैं कि लोग Impatient होते जा रहे हैं और impatience की वजह से जैसे ही कोई नया व्यक्ति आता है, जो बदलाव की बात करता है.. नए-नए वादे करता है.. लोग सहज ही उस पर विश्वास कर लेते हैं .. बड़ी- बड़ी उम्मीदें पाल लेते हैं कि कोई जादू की छड़ी सालों से जड़े जमाए धारणाओं और व्यवस्था को एक झटके में बदल देगी ... लेकिन ऐसा ना तो पहले कभी हुआ ना ही अब हो सकता है लिहाजा लोग कुछ साल या कुछ महीने बीतते उस जादू की दुनिया से बाहर आ जाते हैं और तब उस disillusionment की वजह से ही anarchy के हालात बन जाते हैं ...
अफसोस इस बात का है कि जिन महान शख्सियतों की फिलॉसफी की बातें कर लोग आंदोलन की शुरुआत करते हैं वो निजी ज़िंदगी में उस फिलॉसॉफी को कभी नहीं अपनाते .. पिछले कुछ साल में कई नेताओं और नए बने नेताओं ने राजघाट पर जाकर अपने श्रद्धा सुमन चढाए हैं और गांधी के दर्शन के आधार पर बदलाव की बुनियाद रखने की बात कही है लेकिन क्या ऐसा हो पाया है ?
लोग महात्मा गांधी, राम मनोहर लोहिया और आचार्य नरेंद्र देव जैसी शख्सियतों का नाम महज अपने स्वार्थ के लिए लेने लगे हैं फिर चाहे वो जय गुरुदेव, अन्ना हज़ारे, श्री श्री रविशंकर, रामदेव, अरविंद केजरीवाल ही क्यों ना हों ..ये लोग ने भले ही महान शख्सियतों की फिलॉसफी को अपनाने का दम भरते आए हों लेकिन गहराई से देखा जाए तो इन सबका पॉलिटिकल या बिजनेस स्वार्थ रहा है ... समाज सुधार का दम भरने वाले इन लोगों की देश के अलग अलग हिस्सों में हज़ारों करोड़ की संपत्ति है या फिर इन्हें देश की राजनीति रास आ गई है ... और निजी स्वार्थों को ही बढ़ाने या बचाने के लिए इन्होंने आंदोलनों का सहारा लिया है .... और जब perform करने का मौका आया है तो इनके झूठ का आडंबर सबके सामने आ गया है ..
इस सबके बीच वो लोग खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं जो भावुक हैं और बदलाव की बड़ी इस सबके बीच वो लोग बड़ी-बड़ीउम्मीदें पालने लगते हैं ... ऐसे में ज़रूरत ये है कि समाज के ऐसे तत्वों की पहचान कर उनका सामाजिक और राजनीतिक बहिष्कार कर दिया जाए .. उन्हें इस बात का अहसास कराया जाए कि झूठ की बुनियाद पर आंदोलन नहीं खड़ा किया जा सकता ... जो रामदेव खुद टैक्स चोरी के आरोपों से घिरे हैं, जिनका हज़ारों करोड़ का business empire है वो अगर नैतिकता के आधार पर आंदोलन की बात करते हैं तो इसके अच्छे परिणाम कैसे आ सकते हैं ... श्री श्री रविशंकर की भी अलग अलग जगहों पर करोड़ों की प्रॉपर्टी है ... आखिर महात्मा गांधी ने तो ऐसी प्रॉपर्टी नहीं बनाई ... ऐसे में इस तरह के लोग इस तरह के आंदोलन की बात करते हैं तो ये समाज का हक़ बनता है कि सवाल करे कि किस तरह का आंदोलन चलाया जा रहा है ...
हालांकि इन सबके बीच इस बात का ख्याल रखा जाना ज़रूरी है कि आंदोलनों को बड़ा बनाने में सीधे-सीधे या परोक्ष रूप से मीडिया का हाथ रहा है ... ऐसे में अगर आंदोलन चलाने वाले मीडिया का इस्तेमाल करें तो हैरानी की बात नहीं है ... आज़ादी के आंदोलन में भी मीडिया का अहम रोल रहा था... गांधी जी की बात आम लोगों तक पहुंचाने में मीडिया ने अहम भूमिका अदा की थी चाहे वो उस समय निकलने वाले अखबार हों या फिर छोटे छोटे प्रिटिंग प्रेस में छपने वाले पोस्टर या पैंफलेट्स ... इनके बिना तो एकजुटता और मुखर आंदोलन की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी ...
इमरजेंसी के दौरान भी मीडिया ने अहम भूमिका निभाई इसका विरोध मीडिया ने ही जमकर किया था ... जयप्रकाश नारायण ने जो आंदोलन छेड़ा उसकी सफलता में भी मीडिया का बहुत बड़ा हाथ था ...ये कहना भी गलत नहीं होगा जेपी आंदोलन के दौरान भी कुछ मुट्टी भर पत्रकार थे जिन्होंने आंदोलन के प्रभाव का इस्तेमाल अपने हक में किया था लेकिन वो लोग बहुत जल्द मुख्यधारा से बाहर भी हो गए थे ... इन आंदोलनों की सफलता में बड़ा रोल मीडिया का होता है ऐसे में मीडिया पर सवाल भी उठते हैं .. जरूरी ये है कि मीडिया कथनी और करनी का फर्क समझे ... आर्थिक, राजनैतिक प्रलोभनों से दूर रहे और समाज के ऐसे आलमबरदारों पर भरोसा करने और उनका समर्थन करने से पहले उनके interest की जांच करे ..
अफसोस इस बात का है कि जिन महान शख्सियतों की फिलॉसफी की बातें कर लोग आंदोलन की शुरुआत करते हैं वो निजी ज़िंदगी में उस फिलॉसॉफी को कभी नहीं अपनाते .. पिछले कुछ साल में कई नेताओं और नए बने नेताओं ने राजघाट पर जाकर अपने श्रद्धा सुमन चढाए हैं और गांधी के दर्शन के आधार पर बदलाव की बुनियाद रखने की बात कही है लेकिन क्या ऐसा हो पाया है ?
... और उन्होंने वही किया.. देश को आज़ादी दिलाई .. इसके पीछे उनका कोई अपना एजेंडा नहीं था ... उन्होंने इस दौरान ना तो सच्चाई का रास्ता छोड़ा ना ही भारतीय संस्कृति और मूल्यों को तिलांजलि दी ... महात्मा गांधी ने वही किया जो सही था ... यही वजह है कि आज तक हर वो शख्स जो बड़ा नेता बनना चाहता है जो कथित तौर पर देश में बदलाव लाना चाहता है वो महात्मा गांधी की बात करता है ...
लोग महात्मा गांधी, राम मनोहर लोहिया और आचार्य नरेंद्र देव जैसी शख्सियतों का नाम महज अपने स्वार्थ के लिए लेने लगे हैं फिर चाहे वो जय गुरुदेव, अन्ना हज़ारे, श्री श्री रविशंकर, रामदेव, अरविंद केजरीवाल ही क्यों ना हों ..ये लोग ने भले ही महान शख्सियतों की फिलॉसफी को अपनाने का दम भरते आए हों लेकिन गहराई से देखा जाए तो इन सबका पॉलिटिकल या बिजनेस स्वार्थ रहा है ... समाज सुधार का दम भरने वाले इन लोगों की देश के अलग अलग हिस्सों में हज़ारों करोड़ की संपत्ति है या फिर इन्हें देश की राजनीति रास आ गई है ... और निजी स्वार्थों को ही बढ़ाने या बचाने के लिए इन्होंने आंदोलनों का सहारा लिया है .... और जब perform करने का मौका आया है तो इनके झूठ का आडंबर सबके सामने आ गया है ..
इस सबके बीच वो लोग खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं जो भावुक हैं और बदलाव की बड़ी इस सबके बीच वो लोग बड़ी-बड़ीउम्मीदें पालने लगते हैं ... ऐसे में ज़रूरत ये है कि समाज के ऐसे तत्वों की पहचान कर उनका सामाजिक और राजनीतिक बहिष्कार कर दिया जाए .. उन्हें इस बात का अहसास कराया जाए कि झूठ की बुनियाद पर आंदोलन नहीं खड़ा किया जा सकता ... जो रामदेव खुद टैक्स चोरी के आरोपों से घिरे हैं, जिनका हज़ारों करोड़ का business empire है वो अगर नैतिकता के आधार पर आंदोलन की बात करते हैं तो इसके अच्छे परिणाम कैसे आ सकते हैं ... श्री श्री रविशंकर की भी अलग अलग जगहों पर करोड़ों की प्रॉपर्टी है ... आखिर महात्मा गांधी ने तो ऐसी प्रॉपर्टी नहीं बनाई ... ऐसे में इस तरह के लोग इस तरह के आंदोलन की बात करते हैं तो ये समाज का हक़ बनता है कि सवाल करे कि किस तरह का आंदोलन चलाया जा रहा है ...
हालांकि इन सबके बीच इस बात का ख्याल रखा जाना ज़रूरी है कि आंदोलनों को बड़ा बनाने में सीधे-सीधे या परोक्ष रूप से मीडिया का हाथ रहा है ... ऐसे में अगर आंदोलन चलाने वाले मीडिया का इस्तेमाल करें तो हैरानी की बात नहीं है ... आज़ादी के आंदोलन में भी मीडिया का अहम रोल रहा था... गांधी जी की बात आम लोगों तक पहुंचाने में मीडिया ने अहम भूमिका अदा की थी चाहे वो उस समय निकलने वाले अखबार हों या फिर छोटे छोटे प्रिटिंग प्रेस में छपने वाले पोस्टर या पैंफलेट्स ... इनके बिना तो एकजुटता और मुखर आंदोलन की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी ...
इमरजेंसी के दौरान भी मीडिया ने अहम भूमिका निभाई इसका विरोध मीडिया ने ही जमकर किया था ... जयप्रकाश नारायण ने जो आंदोलन छेड़ा उसकी सफलता में भी मीडिया का बहुत बड़ा हाथ था ...ये कहना भी गलत नहीं होगा जेपी आंदोलन के दौरान भी कुछ मुट्टी भर पत्रकार थे जिन्होंने आंदोलन के प्रभाव का इस्तेमाल अपने हक में किया था लेकिन वो लोग बहुत जल्द मुख्यधारा से बाहर भी हो गए थे ... इन आंदोलनों की सफलता में बड़ा रोल मीडिया का होता है ऐसे में मीडिया पर सवाल भी उठते हैं .. जरूरी ये है कि मीडिया कथनी और करनी का फर्क समझे ... आर्थिक, राजनैतिक प्रलोभनों से दूर रहे और समाज के ऐसे आलमबरदारों पर भरोसा करने और उनका समर्थन करने से पहले उनके interest की जांच करे ..
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